अभूतपूर्व स्वागत

जैसे-जैसे स्वामी विवेकानंद का जहाज भारत के पास पहुँचता जा रहा था, दक्षिण भारत के अनेक शहरों में लोग अभूतपूर्व सम्मान के साथ स्वामी विवेकानंद का स्वागत करने और उनके स्वागत व आभार के उदबोधन प्रस्तुत करने की तैयारियां कर रहे थे। उनके एक गुरु-बंधु, स्वामी निरंजनानंद, उनका स्वागत करने के लिए सीलोन आए थे; अन्य लोग मार्ग में थे। उनके बहुप्रतीक्षित आगमन को लेकर पूरे देश में अत्यंत आनंद का माहौल था। स्वागत समितियों में विभिन्न धार्मिक समुदायों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। स्वामी विवेकानंद इस बारे में अनभिज्ञ थे कि उनकी वापसी को लेकर भारत के लोगों में कितना अधिक उत्साह है। यद्यपि वे जानते थे कि लोग उनकी विजय से आनंदित थे और उनकी वापसी पर उन्हें प्रसन्नता होगी, किंतु यहाँ पहुँचने पर उनका जिस उत्साह से स्वागत किया गया, वह अभूतपूर्व था और उसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की थी – जिनका स्वागत हुआ, उन्होंने भी नहीं और जिन्होंने स्वागत हुआ, उन्होंने भी नहीं।

१५ जनवरी १८९७ को कोलंबो का सूर्य भारतमाता के पुत्र स्वामी विवेकानंद की विजयी वापसी के साथ उदित हुआ। सुबह के इस सूर्य के साथ ही स्वामीजी भी सभी भारतीयों के हृदयों में सहस्त्रसूर्य के समान चमक रहे थे। समाचार-पत्रों में इस प्रकार वर्णन किया गया था, ‘स्वामीजी को ला रहे स्टीम लॉन्च को, जेटी की ओर बढ़ते देखकर कोलंबो की भारी भीड़ के मन में उमड़ी भावनाओं तथा उनके प्रेम की अभिव्यक्ति का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता... नारों के स्वर और तालियों की आवाज़ में तूफ़ानी लहरों का शोर भी दब गया था।’ लोगों के उत्साह को देखकर महासागर की लहरें भी विनम्र हो गईं थी। संभवतः महासागर भी स्वयं को भूलकर अगस्त्य ऋषि के वंशज इस नायक की वापसी को विस्मय से देख रहा था। सीलोन में उनका प्रफुल्लित स्वागत उनका पहला सार्वजनिक स्वागत होने वाला था, जिसमें सुदूर दक्षिण में कोलंबो से दूर उत्त्तर में अल्मोड़ा तक और बाद में राजस्थान तक, लगभग एक वर्ष तक चलने वाली विशाल ‘विजय ही विजय’ यात्रा की एक झलक मिली।

अलग-अलग भागों और समय के अनुसार स्वागत की विधि में अंतर आते रहे, किन्तु लोगों का उत्साह सर्वत्र एक-सा ही रहा। सीलोन और दक्षिण भारत के अन्य नगरों में शोभायात्रा के मार्गों को पानी से धोकर साफ़ किया गया था, घरों के सामने आम के पत्तों के साथ ‘निराईकुडम’ रखे गए थे। पूरे यात्रा-मार्ग को केले के पत्तों से सजाया जाता था। यदि रात्रि का समय हो, तो यात्रा के साथ मशालें भी चलती थीं, घरों के सामने दीप जलाए जाते थे, जो मानो इन शब्दों को वास्तविक अर्थ प्रदान करते थे कि ‘स्वामी विवेकानंद के साथ ही भारत में प्रकाश का आगमन हुआ!’ जिस प्रकार देवताओं की यात्राओं में छत्र पकड़े जाते हैं, उसी प्रकार स्वामी विवेकानंद की स्वागत-यात्राओं में भी रखे गए। एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार, “सर्वत्र ध्वज और पताकाएं दिखाई दे रही थीं। मैं यह अवश्य बताना चाहता हूँ कि यात्रा के आगे वाद्यवृंद, टमटम आदि चलते थे, तथा केवल किसी देवता अथवा प्रतिमा की यात्रा के समय निकाले जाने वाले पवित्र छत्रों व पताकाओं का उपयोग भी किया गया था।” जय महादेव का जयघोष वातावरण में गूँज रहा था।

स्वामी जी को, बग्घियों में, रथों में, पालकियों में, आकर्षक रूप से सजाई गई नाव में, जिसकी व्यवस्था रामनाड के राजा ने की थी, और यहाँ तक कि अल्मोड़ा में तो सजे हुए घोड़े पर ले जाया गया। राजाओं सहित सभी लोग अत्यधिक प्रसन्न थे और रामनाड के राजा ने, मद्रास व कलकत्ता में युवाओं ने उनका रथ खींचा। समाचारों के अनुसार: ‘कार्यक्रम समाप्त होने पर, स्वामीजी को शासकीय-बग्घी में बिठाकर राज भवन की ओर ले जाया गया, अपने दरबारियों के साथ स्वयं राजा पैदल चल रहे थे। इसके बाद, राजा के आदेशानुसार, घोड़े हटा दिए गए और राजा सहित आम लोगों ने शासकीय-बग्घी को पूरे नगर में खींचा।’स्वामी विवेकानंद के सम्मान में कई स्वागत भाषण पढ़े गए, भजनों की रचना की गई। उनके स्वागत में कोलंबो में थेवरम गाया गया, यात्रा के दौरान बैंड पर अनेक भारतीय व अंग्रेज़ी गीतों की धुनें बजाई गईं।’

उनके स्वागत का उत्साह इतना अधिक था कि आज भी उसका वर्णन सुनकर हम रोमांचित हो उठते हैं। कुछ वर्णन नीचे उद्धृत हैं।
कोलंबो में: “प्रत्येक उपलब्ध वाहन का उपयोग किया गया था और सैकड़ों पदयात्री विजय पंडाल की ओर बढ़ रहे थे, जिसे ताड़ के वृक्षों, सदाबहार फूलों आदि से सजाया गया था। स्वामी जी एक रथ से उतरकर जुलूस के साथ पैदल आगे बढ़े, जिसे सम्मान के हिन्दू प्रतीकों द्वारा सजाया गया था – जैसे ध्वज, पवित्र छत्र, श्वेत वस्त्र आदि। एक भारतीय बैंड विशिष्ट धुनें बजा रहा था। ...सड़क के दोनों ओर एक पंडाल से दूसरे पंडाल तक, जिनके बीच की दूरी चौथाई मील थी, ताड़ के पत्तों से बने बंदनवार सजाए गए थे। जैसे ही स्वामीजी दूसरे पंडाल में पहुँचे, एक सुन्दर कृत्रिम कमल की पंखुड़ियाँ खुलीं और भीतर से एक पक्षी निकलकर मुक्त गगन में उड़ गया।”

क्या यह इस बात का संकेत था कि मुक्त होना ही भारत का भवितव्य है? किन्तु इस सजावट की ओर किसी का विशेष ध्यान नहीं था क्योंकि सबकी आँखें स्वामीजी के तेजस्वी मुखमंडल और चमकते नेत्रों पर लगी हुई थीं। उनमें लोगों को महान भारत की स्वतंत्रता स्पष्ट दिखाई दे रही थी।

जाफना में: “द्वीप के सभी भागों से सहस्त्रों लोग इस प्रसिद्द सन्यासी की एक झलक पाने के लिए नगर में उमड़ पड़े थे, और उनके स्वागत के लिए मार्ग के दोनों ओर एकत्रित थे। शाम ६ बजे से रात्रि १२ बजे तक, जाफना के कांगेसंतुरा मार्ग पर, हिन्दू कॉलेज तक, इतनी भीड़ जमा थी कि घोड़ागाड़ियों या अन्य वाहनों का निकलना असंभव था। रात्रि ८:३० बजे भारतीय संगीत के साथ प्रारंभ हुआ मशाल जुलूस अभूतपूर्व था। ऐसा अनुमान है कि लगभग १५ हज़ार लोग इसमें पैदल सम्मिलित हुए। दो मील की संपूर्ण दूरी तक इतनी भीड़ थी कि मानो लोगों का समुद्र ही उमड़ गया हो, किन्तु फिर भी प्रारंभ से अंत तक सब-कुछ सुव्यवस्थित ढंग से हुआ। संपूर्ण दूरी तक मार्ग के दोनों ओर लगभग प्रत्येक घर के द्वार पर निराईकुडम और दीप रखे हुए थे, जो कि वहाँ के निवासियों के लिए, हिन्दू विचार के अनुसार, इस महान सन्यासी के प्रति अपना उच्चतम सम्मान व्यक्त करने का एक तरीका था।

रामनाड में: “स्वामी जी की प्रतीक्षा कर रहे सहस्त्रों लोगों को तोप की आवाज़ से उनके आगमन की सूचना मिली। स्वामी जी के आगमन पर एवं जुलूस के दौरान, हवा में रॉकेट छोड़े गए। चारों ओर उत्साह व प्रसन्नता का वातावरण था। स्वामीजी को राजसी-बग्घी में ले जाया गया, जिसके साथ के राजा के भाई के नेतृत्व में अंगरक्षक चल रहे थे, जबकि स्वयं राजा, पैदल चलते हुए जुलूस का मार्गदर्शन कर रहे थे। मार्ग के दोनों ओर मशालें जल रही थीं। उत्साहपूर्ण जुलूस में भारतीय और यूरोपीय संगीत से और भी जोश भर दिया। स्वामी जी के आगमन पर और राजधानी में उनके प्रवेश के समय “विजयी वीर का आगमन हुआ” (See the Conquering Hero Comes) की धुन बजाई गई। जब आधी दूरी तय हो गई, तो राजा के अनुरोध पर स्वामीजी नीचे उतरे और राज्य की पालकी पर सवार हुए। पूरी धूमधाम के साथ वे शंकर विला पहुंचे।

अल्मोड़ा में: “स्वामी जी की सवारी के लिए एक सुंदर घोड़ा सजाया गया था, जिस पर सवार होकर उन्होंने जुलूस का नेतृत्व किया, जिसके बारे में गुडविन ने लिखा है कि ऐसा लगता था मानो अल्मोड़ा का प्रत्येक नागरिक उसमें सम्मिलित होने आया हो। (यह १० मई का दिन था। स्वागत कार्यक्रम जनवरी से ही जारी थे।) हर घर में दीप और मशालें प्रज्वलित की गईं थीं और पूरा नगर प्रकाशमान हो गया था। स्थानीय संगीत और भीड़ के लगातार नारों से संपूर्ण वातावरण इतना अधिक विलक्षण हो उठा था कि वे लोग भी आश्चर्यचकित रह गए, जो कोलंबो से ही स्वामीजी के साथ थे। प्रत्येक घर से पुष्पों और अक्षत की वर्षा की गई।

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के प्रसिद्द भाषण के बाद से ही, भारतीय समाचार-पत्र अकसर उनकी प्रशंसा से भरे रहते थे और जब वे कोलंबो पहुँचे, तो आमंत्रणों, निवेदनों, अनुरोधों और अभिनंदनों के अनेक तार उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वे भारत के “राष्ट्रीय नायक” बन चुके थे, ऐसा लगता था मानो उनमें और उनके संदेश में भारत ने अपनी आत्मा की खोज कर ली हो, मानो भारत अपने उद्देश्य को समझकर जागृत हो गया हो, मानो उसने विश्व-कल्याण का अपना स्वर पुनः प्राप्त कर लिया हो।

चूंकि अनेक आमंत्रण और अनुरोध आते जा रहे थे, इसलिए स्वामीजी को बार-बार अपने कार्यक्रम में परिवर्तन करना पड़ा। कुछ आमंत्रणों को उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया, जैसे रामनाड के राजा से प्राप्त आमंत्रण। ऐसा प्रतीत होता है कि ’२७ जनवरी को स्वामी जी का आगमन होगा, यह समाचार सुनकर राजा इतने अधिक प्रसन्न हुए कि उन्होंने तुरंत ही एक सहस्त्र दरिद्र-जनों को भोजन करवाया’, स्वामीजी के रामनाड आगमन पर, राजा ने पुनः एक सहस्त्र दरिद्र-जनों को भोजन एवं वस्त्र प्रदान किए। जब स्वामी विवेकानंद खेतड़ी की ओर जा रहे थे, तो १ दिसंबर को खेतड़ी और साथ ही अलवर के लोग अपने घोड़ों और पालकियों के साथ रेवाड़ी जंक्शन पर उपस्थित थे। अलवर के लोगों ने स्वामीजी से इतना अधिक आग्रह किया कि उन्हें पहले अलवर ही जाना पड़ा। कुछ निवेदनों को वे स्वीकार नहीं कर सके, जैसे पुणे, तिरुचिरापल्ली आदि; किन्तु तिरुचिरापल्ली स्टेशन पर प्रातः ४ बजे सहस्त्रों लोग स्वामीजी के स्वागत के लिए उपस्थित थे। थोड़े समय बाद तंजौर में भी पुनः सहस्त्रों लोग एकत्रित हो गए।

मद्रास के एक छोटे स्टेशन पर, जहां रेलगाड़ी नहीं रूकती थी, वहाँ लोग रेलगाड़ी को रोकने के लिए अपने प्राणों की परवाह किए बिना रेल-लाइनों पर लेट गए क्योंकि थोड़ी देर के लिए रेलगाड़ी को वहाँ रोकने का उनका अनुरोध स्टेशन-मास्टर ने अस्वीकार कर दिया था। गार्ड की समय-सूचकता के कारण एक भीषण दुर्घटना टल गई। रेल की पटरियों पर इस तरह लेटे हुए लोगों को देखकर स्वामीजी द्रवित हो उठे और उन्होंने उन लोगों से बात की। वे लोग क्या चाहते थे? वे केवल उस व्यक्ति के दर्शन करना चाहते थे, जिसने उन्हें उनका आत्म-सम्मान लौटाया था, जिसने उनके व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन को उसका उद्देश्य प्रदान किया था, जिसने उनके विश्वास को दृढ़ किया था।

एक वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद भी विभिन्न नगरों में `स्वामी विवेकानंद को आमंत्रित किया जा रहा था और उनका स्वागत जारी था। जब उन्होंने ने इनमें से कुछ निवेदनों को स्वीकार कर लिया, तो इस अतिरिक्त यात्रा का प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ा, जिसके कारण उन्हें पुनः अपने कार्यक्रमों में परिवर्तन करना पड़ा। लोगों के अभूतपूर्व उत्साह के कारण कुछ नए स्थान उनकी यात्रा में जुड़ गए, लेकिन इसके कारण जब उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, तो कुछ स्थान यात्रा से हटाने भी पड़े।

प्रत्येक नगर, प्रत्येक ग्राम उनकी एक झलक पाना चाहता था, उनका जीवनदायी संदेश सुनना चाहता था, उद्देश्य को समझना चाहता था, अपना यह विश्वास दृढ़ बनाना चाहता था कि उनकी वेदांत परंपरा ही मानव-जाति की सर्वाधिक वैश्विक आध्यात्मिक परंपरा थी। शारीरिक रूप से, स्वामी विवेकानंद प्रत्येक ग्राम और नगर में नहीं जा सकते थे। किन्तु, उनका प्रभाव इतना महान था कि उसके बाद से ही भारत के लोगों ने उनकी जन्म-शताब्दी, और उनकी यात्रा की, शिकागो के भाषण की, उनकी समाधि की जन्म-शताब्दी मनाई, ताकि वे बार-बार उनके दिव्य व्यक्तित्व का अनुभव कर सकें और उनका प्रेरणादायी संदेश सुन सकें। चूंकि अब उनके जीवन की सभी शताब्दियाँ पूर्ण हो चुकी हैं, इसलिए भारत के लोग अब उनकी १५०वीं जयंती मनाने की तैयारी कर रहे हैं। स्वामी विवेकानंद का अभूतपूर्व स्वागत अविरत जारी है।
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