माननिय एकनाथजी रानडे के साथ भेंटवार्ता विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी
प्रश्नोत्तर - पान्चजन्य से
मूल कल्पना
प्रश्नः- विवेकानन्द के नाम सेे आपने जो प्रयोग प्रारम्भ किया है, उसके पीछे आपकी क्या कल्पना विद्यमान है?
उत्तरः- कल्पना ऐसी है कि इस देश में जो भी अच्छे कार्य हुए हैं, उनकी प्रेरणा हमेशा आध्यात्मिक ही रही है। हमारे देश में देशभक्ति के जो बड़े उदाहरण कहे जाते हैं, कहने के लिए भले ही देश या समाज की सीमा के भीतर कार्य करते रहे हों, किन्तु सूक्ष्म अध्ययन से प्रकट होता है कि उनकी देशभक्ति की मूल प्रेरणा आध्यात्मिक ही रही है। देशभक्ति की मूल प्रेरणा ने जब-जब आध्यात्मिक रूप धारण किया है, तभी उस प्रेरणा में से बड़े काम सम्भव हुए हैं। यह हमारे देश का प्रमुख वैशिष्ट्य है। हमारे देश का सम्पूर्ण जीवनदर्शन आध्यात्मिकता की नींव पर खड़ा है। यह आध्यात्मिक प्रेरणा मनुष्य में बहुत बड़ी कर्मशक्ति उत्पन्न करती है। अतः विवेकानन्द केन्द्र के माध्यम से हमारा एक ही प्रयत्न है कि भारतीय मानस में पहले से विद्यमान किन्तु सुप्त आध्यात्मिक प्रेरणा को जगाकर देश की कर्मशक्ति को रचनात्मक सेवा कार्यों में लगाया जाए।
वास्तविक अध्यात्म
प्रश्नः- किन्तु आध्यात्मिक प्रेरणा को जगाने के अनेक प्रयत्न देश में पहले से चल रहे हैं।
उत्तरः- चल तो रहे हैं, किन्तु उनके द्वारा जागृत आध्यात्मिक प्रेरणा सेवा कार्यों में प्रवाहित नहीं हो पाती, वह समाजाभिमुख कर्मशक्ति का रूप धारण नहीं करती। स्वामी विवेकानन्द ने बहुत ही आग्रहपूर्वक कहा था कि वास्तविक अध्यात्म समाज की सेवा में प्रकाशित होना चाहिए। यही आध्यात्मिकता के जागरण की एकमात्र कसौटी है। यदि कोई व्यक्ति स्वयं को ईश्वर भक्त समझता है तो उसे मनुष्य भक्त होना ही चाहिए, यदि कोई ईश्वरभक्त व्यक्ति मनुष्य समाज की ओर पीठ करके खड़ा हो जाता है तो उसमें कुछ न कुछ विकृति अवश्य है। विवेकानन्द ने अपने अल्प जीवन में जो कुछ किया और बोला उसका यही सार तत्व है। आध्यात्मिक प्रेरणा की जागृति का प्रयास यदि केवल भजन कीर्तन, प्रवचन अथवा ध्यान धारणा तक ही सीमित है तो वह पर्याप्त नहीं है। एक ऐसी कार्य प्रणाली का आविष्कार करना होगा जिसमें मनुष्य में आध्यात्मिक प्रेरणा की जागृति के साथ-साथ वह प्रेरणा समाज सेवा के पथ पर अग्रसर हो सके। विवेकानन्द केन्द्र इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है।
दो प्रमुख कारण
प्रश्नः- आध्यात्मिक प्रेरणा को समाजसेवा के पथ पर प्रवाहित करने की दिशा में चिन्मय मिशन, सत्यसाईं बाबा प्रतिष्ठान आदि भी प्रयत्नशील हैं। इनके होते हुए विवेकानन्द केन्द्र की अलग से प्रारम्भ करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तरः- विवेकानन्द केन्द्र इन सब प्रयत्नों का पूरक है, प्रतिस्पर्धी नहीं। यह देश बहुत विशाल है। इसके सामने अनन्त समस्यायें हैं। किन्तु कर्म शक्ति का बहुत अभाव है। ऐसे कितने भी प्रयास प्रारम्भ हों तो वे इन समस्याओं को सुलझाने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। विवेकानन्द केन्द्र के माध्यम से हम भी इस दिशा में कुछ योगदान करना चाहते हैं। विवेकानन्द के नाम से कोई नया सम्प्रदाय स्थापित करने की भावना से हमने विवेकानन्द केन्द्र को प्रारम्भ नहीं किया है।
इस आन्दोलन को विवेकानन्द के नाम के साथ जोड़ने के दो कारण हैं। पहला कारण ऐतिहासिक है। विवेकानन्दजी की जन्म शताब्दी के साथ कन्याकुमारी पर उनके शिला स्मारक की स्थापना का जो प्रयास प्रारम्भ हुआ उसी के भीतर से आगे चलकर जीवनव्रती कार्यकर्ताओं के निर्माण की प्रक्रिया का भी जन्म हुआ। दूसरा कारण वैचारिक। स्वामी विवेकानन्द ने भारत की सम्पूर्ण परम्परा में गहरी डुबकी लगाकर उसमें से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श का प्रतिपादन करने वाले हमारे उदात्तम जीवन दर्शन को विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। पूजा-पाठ अैेर कर्मकाण्ड के अन्दर से निकलकर देश का ध्यान उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित श्रेष्ठ जीवनमूल्यों के प्रति आकृष्ट किया। वे हमारी राष्ट्रीय भावना को गहरी और पुष्ट करते हुए भी हमें विश्वबन्धुत्व के आदर्श की ओर आगे बढ़ाते हैं। एक प्रकार से विवेकानन्द भारतीय जीवनधारा के उदात्तम तत्वों के प्रतीक बन गये हैं। इसलिए हमें रचनात्मक प्रक्रिया को विवेकानन्दजी के नाम से जोड़ना उचित समझा। हम कोई ‘विवेकानन्द कल्ट’ नहीं फैलाना चाहते।
सावधानी
प्रश्नः- आपका यह सोचना तो अपनी जगह ठीक है। भारत में प्रत्येक कार्य ऐसी ही उदार एवम् व्यापक मनोभूमिका को लेकर प्रारम्भ हुआ है किन्तु आगे चलकर वह एक संकुचित सम्प्रदाय बनकर रह गया। तब विवेकानन्द केन्द्र की नियति इससे भिन्न क्यों होगी?
उत्तरः- हमारा प्रयास है कि इस आन्दोलन के साथ ऐसा न होने पाए। इस दिशा में हम पूरी सावधानी बरत रहे हैं।
प्रश्नः- उदाहरणार्थ?
उत्तरः- जहाँँ-जहाँँ हमारा काम है, वहाँँ-वहाँँ हमने ध्यान-मण्डप में केवल ‘ॐ’ का चिन्ह ध्यान के लिए रखा है। वहाँँ किसी व्यक्ति का चित्र नहीं रखा। कन्याकुमारी में भी हमने विवेकानन्दजी का स्मारक स्थापित किया है, उनका मन्दिर नहीं बनाया है। हम विवेकानन्दजी को भगवान नहीं बना देना चाहते। उनकी उपासना नहीं करते। उपासना तो केवल निराकार ‘ॐ’ की करते हैं।
भावी आशंकाएँँ
प्रश्नः- किन्तु क्या आगे चलकर अन्ध श्रद्धालु लोग उसे मन्दिर का रूप नहीं दे देंगे?
उत्तरः- वह मन्दिर न बनने पाए, स्मारक ही बना रहे इस दृष्टि से हम पूरी तरह जागरुक और प्रयत्नशील हैं।
कार्य-पद्धति
प्रश्नः- विवेकानन्द केन्द की कार्यपद्धति एवं अन्य आध्यात्मिक कार्यों की कार्यपद्धति में क्या अन्तर है?
उत्तरः- हमारा मुख्य लक्ष्य है समाज में से वास्तविक आध्यात्मिक मनों को खोज निकालना और उनकी कर्मशक्ति को समाजाभिमुख करते हुए उन्हें आध्यात्मिक विकास के पथ पर आगे बढ़ाना।
यहाँँ प्रश्न उठता है कि सच्चे आध्यात्मिक मन की पहचान क्या है, परख क्या है? तो जहाँँ आध्यात्मिकता है वहाँँ ‘स्व’ का विस्तार अवश्य होगा। दूसरों के लिए संवेदना, सहानुभूति एवं करुणा का भाव अवश्य होगा। केवल अपने लिए नहीं तो दूसरों के लिए जीने की तड़प होगी। अतः प्रत्यक्ष सेवा कार्य में जिनकी आध्यात्मिक प्रेरणा प्रकट होती है, ऐसे लोगों को हम खोजते हैं। इस मूल सूत्र के चारों ओर ही हम अपनी कार्यपद्धति का तानाबाना खड़ा करने का प्रयत्न कर रहे हैं। अर्थात् विभिन्न प्रकार के सेवाकार्यों के माध्यम से आध्यात्मिक मनों को आकर्षित कर आन्तरिक प्रेरणा को प्रत्यक्ष सेवाकार्य में प्रवाहित कर हम उसके अधिकाधिक आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया उसे प्रदान करते हैं।
मैं तो ऐसा नहीं कहूँँगा कि ऐसी कार्यपद्धति को अन्तिम रूप हम दे पाये हैं। अभी वह प्रयोगाधीन है। अनुभव के आधार पर धीरे-धीरे उसका रूप विकसित हो रहा है।
सेवा की कल्पना
प्रश्नः- सेवा कार्य की आपकी कल्पना क्या है?
उत्तरः- समाज सेवा का क्षेत्र विशाल है, सेवा के क्षेत्र अनन्त हैं। समाज में आर्थिक-सामाजिक विषमता है, अन्धविश्वास है, समयातीत रूढियां हैं, दारिद्रय है, निरक्षरता है। इन सभी समस्याओं के निराकरण के प्रयत्न समाजसेवा के अन्तर्गत आते हैं।
संक्षेप में इन सेवाओं को निम्नलिखित सीढि़यों में रख सकते हैंः-
भूखों को भोजन, बीमार को चिकित्सा, अज्ञानी को विद्या की व्यवस्था करना। जिनके शरीर और मन की मूलभूत आवश्यकताएं उपलब्ध नहीं है उनकी सहायता करना।
लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में लोगों को आत्मनिर्भर बनाना, इसके लिए उन्हें शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान करना।
मनुष्य की कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का शुद्धिकरण, दृढ़ीकरण करते हुए उसे व्यष्टि एवं समष्टि के धरातल पर चरमसुख की प्राप्ति का अधिकारी बनाना।
इससे भी अधिक व्यापक एक अन्य सेवा क्षेत्र भी है- वह है एक आदर्श समाज रचना के निर्माण की दिशा में लगे हुए विभिन्न प्रयासों को पूर्ण सहयोग देना। जिस समाज रचना में उसकी प्रत्येक इकाई को न केवल शरीर और मन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति अपितु आत्मसाक्षात्कार की अन्तः प्रेरणा की पूर्ति के द्वारा चरम सुख की प्राप्ति के लिए पर्याप्त अवसर प्राप्त हो और जो समाज रचना सम्पूर्ण विश्व के लिए अनुकरणीय बन सके।
इतिहास के उषाकाल से ही विगत अनेकों शताब्दियों से यही हमारा राष्ट्रीय प्रयास रहा है।
समन्वय की दृष्टि
प्रश्न:- यह तो राष्ट् निर्माण का एक स्वयंपूर्ण कार्यक्रम है। तो क्या विवेकानन्द केन्द्र राष्ट् के सर्वांगीण विकास का समग्र आन्दोलन बनाने की आकांक्षा रखता है?
उत्तर:- नहीं, हम ऐसे समस्त सेवा कार्यो में पूरक बनना चाहतें हैं। हम ऐसे सभी प्रयत्नों के बीच समन्वय चाहते हैं।
अहं से दूर
प्रश्नः- पूरकता या समन्वय की कोई प्रक्रिया या व्यवस्था आपने विकसित की है?
उत्तरः- यह व्यवस्था बनाने का अहं लेकर हम क्यों चलें? हम तो इतना ही कर सकते हैं कि स्वयं विनम्रतापूर्वक अपनी सीमित क्षमता पर सेवाकार्यों में लगे रहें और अन्य सभी कार्यों के प्रति अपनत्व की उदार दृष्टि अपनाएँँ। हम न तो सेवा क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते हैं, न उसका केन्द्र बिन्दु स्वयं को मानने का अहं पालना चाहते हैं।
विशिष्ट कार्यक्षेत्र
प्रश्नः- आपने अपनी वर्तमान शक्ति को ध्याान में रखकर अपने लिए क्या कोई विशेष कार्यक्षेत्र चुन लिया है?
उत्तरः- हां, अभी हमने सेवा कार्यो के लिए उत्तरी पूर्वी सीमान्त प्रदेश को ही चुना है, क्योंकि यह क्षेत्र आजतक उपेक्षित पड़ा रहा। शेष भारत से लोग अन्तःकरण की करुणा और ममता लेकर वहां नहीं गए। वहां के निवासियों को विशाल भारतीय परिवार का अभिन्न अंग होने की अनुभूति हमने आजतक नहीं कराई। इस क्षेत्र में सेवाकार्य के लिए जीवनव्रती कार्यकर्ताओं की बड़ी श्रृंखला चाहिए। उसके लिए हम समूचे देश में संगठनात्मक ताने-बाने का निर्माण कर रहे हैं।
सेवा का स्वरूप
प्रश्नः- उत्तर पूर्वी क्षेत्र में आपके सेवा कार्यों एवं प्रयत्नों का स्वरूप क्या है?
उत्तरः- अभी हमने वहाँँ शैक्षणिक गतिविधिया एवं योग केन्द्र प्रारम्भ किये हैं। किन्तु शीघ्र ही हम वहाँँ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा केन्द्र भी प्रारम्भ करने जा रहे हैं।
प्रभाव एवं प्रतिक्रिया
प्रश्नः- इन गतिविधियों की स्थानीय लोगों पर क्या प्रतिक्रिया है? उन पर क्या छाप पड़ रही है?
उत्तरः- वे सभी इनकी सराहना करते हैं और उनमें प्रत्यक्ष सहयोग देते हैं।
सत्ता और समाज
प्रश्नः- आदर्श समाज रचना के निर्माण में आप राजसत्ता का क्या योगदान समझते हैं? सत्ताभिमुख राजनीति के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है?
उत्तरः- हम इस देश में जो कुछ सुधार लाना चाहते हैं, जिस-जिस दिशा में परिवर्तन करना चाहते हैं, उसका मुख्य आधार युवकों की स्वयं प्रेरित कर्म शक्ति ही होना चाहिए। उसी को बढ़ावा देना चाहिए। सामाजिक प्रयत्नों के माध्यम से ही हमें राष्ट् निर्माण का प्रयत्न करना चाहिए। गांव के लोग एकत्र होकर भलाई के काम करें। अपनी समस्याएं स्वयं सुलझाए। हमें लोगों में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता को जगाना चाहिए। राज्य केवल इतना ही कर सकता है कि देश के लिए हितकर रूपरेखा देश के सामने रखे और उसके लिए स्वस्थ वातावरण तैयार करे।
सत्ता की राजनीति (राजनीति से विलग)
प्रश्नः- किन्तु आजकल सत्ता और वोट की राजनीति सर्वव्यापी एवं सर्वोपरि बन गई है?
उत्तरः- हाँँ, स्थिति तो यही है किन्तु इस झमेले से स्वयं को दूर रखना चाहता हूँ कि राजनीति में लगे हुए लोग राजनीति के चरित्र को शुद्ध करने के लिए उचित आदर्श प्रस्तुत करेंगे।
दायित्व किसका?
प्रश्नः- आदर्श प्रस्तुत करने का जिम्मा कौन ले, उसकी प्रक्रिया क्या हो? क्या सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजनीति से पूरी तरह पीठ मोड़ लेनी चाहिए?
उत्तरः- सामाजिक कार्य और राजनीति को एक दूसरे से अलग ही रहना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि समाज सेवा भी सत्ता राजनीति का उपकरण बन जाए। यदि समाज सेवा को धर्मान्तरण का माध्यम बनाना अनुचित है तो यह भी उतना ही अनुचित है। जिस प्रकार धर्मान्तरण के उद्देश्य को लेकर समाज सेवा कदापि नहीं करना चाहिए-उसी प्रकार सत्ता राजनाति के पोषण के लिए भी समाज सेवा नहीं करना चाहिए। ऐसे लोगों को समाज सेवा के क्षेत्र से हट जाना चाहिए। समाज सेवा का एक मात्र लक्ष्य अन्तिम शान्ति ही रहना चाहिए।
प्रश्नः- आध्यात्मिक शान्ति के लिए समाज सेवा के संगठित एवं विस्तारवादी प्रयत्नों का अंग बनने की आवश्यकता क्या है? कोई भी छोटा सा सेवाकार्य हाथ में लेकर व्यक्ति स्वयं को संतुष्ट कर सकता है किन्तु ऐसे व्यक्तिगत सेवाकार्य सामाजिक-आर्थिक पुनर्निमाण के माध्यम कैसे बन सकते है?
उत्तरः- आपकी यह बात ठीक है। यदि सेवा कार्य का लक्ष्य राष्ट्र का सामाजिक-आर्थिक पुनर्निमाण करना है तो उसके लिए अखिल भारतीय संगठन का रूप देना ही होगा। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि सेवा के लिए जब अखिल भारतीय संगठन बनता है तो अगर विशेष ध्यान न दिया जाय तो उसका सत्ता राजनीत के लिए उपयोग किया जा सकता है। ऐसे उदाहरण हमारे देश में ही मौजूद हैं। मुझे तो इसका एक ही उपाय सूझता है कि समाज सेवा के क्षेत्र में उन्हीं लोगों को कूदना चाहिए जिनमें सच्ची और उत्कट आध्यात्मिक प्रेरणा हो। साथ ही सेवा कार्य को राजनीति से बिलकुल अलग रखना चाहिए।
आदर्श समाज रचना
प्रश्नः- किन्तु इससे आदर्श समाज रचना का निर्माण कैसे सम्भव है?
उत्तरः- ऐसे निःस्वार्थ सेवा कार्य एक ओर तो समाज में से सच्चे आध्यात्मिक अन्तःकरणों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, दूसरी ओर उनकी आध्यात्मिक प्रेरणा को अधिक गहरी करते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक लोगों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। इस आध्यात्मिक आधार भूमि पर ही आदर्श समाज रचना का निर्माण सम्भव है।
राजसत्ता की भूमिका
प्रश्नः- क्या इसका अर्थ यह समझा जाए कि आध्यात्मिक समाज के निर्माण में आप राज्य सत्ता की कोई भूमिका नहीं समझते?
उत्तरः- नहीं। राज्य सत्ता का केवल इतना काम है कि वह समाज की तो लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखे और देश में सही वातावरण के निर्माण में सहयोग दे किन्तु जिस प्रकार आध्यात्मिक प्रयत्नों को राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए उसी प्रकार राज्य को भी आध्यात्मिक क्षेत्र में अपनी टांग नहीं अडा़नी चाहिए। दोनों को अलग-अलग कार्य करते हुए एक दूसरे का पूरक बनना चाहिए।
आंकलन (कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण)
प्रश्नः- जीवनव्रती कार्यकर्ताओं की योजना की विगत पांच वर्षों में क्या प्रगति एवं उपलब्धि रही है?
उत्तरः- हमने यह योजना शून्य से प्रारम्भ की थी। किसी भी नए कार्य की अपनी समस्याएं होती हैं। समाज में विद्यमान ऐसे अन्तःकरणों के पास पहुंचने के लिए हमें पत्रकार सम्मेलनों एवं विज्ञापनों का सहारा लेना पड़ता था। योग्य व्यक्तियों तक पहुंचने एवं उन्हें छाटने के लिए हमारे पास कोई संगठनात्मक प्रक्रिया नहीं थी। यह सब होने पर भी अब तक की प्रगति संतोषजनक एवं उत्साहप्रद है। इससे अधिक अच्छे परिणामों की हम अपेक्षा ही नहीं कर सकते थे। किन्तु अब पांच वर्ष के अनुभव के आधार पर हम इस वर्ष नए प्रयोग करने जा रहे हैं। हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जीवनव्रती कार्यकर्ताओं को कन्याकुमारी में प्राथमिक प्रशिक्षण की अवधि सात महीने से घटाकर 2 या 3 महीने कर देना चाहिए। इस संक्षिप्त प्रशिक्षण के पश्चात से सीधे सेवा में भेज देना चाहिए। प्रत्यक्ष सेवा क्षेत्र में एक वर्ष तक उसे अपनी प्रवृत्तियों, रुचियों, क्षमताओं एवं प्रतिभा का आंकलन करने का अवसर मिलेगा। एक वर्ष के प्रत्यक्ष अनुभव के पश्चात् उसे उसकी प्रवृत्ति, रुचि व प्रतिभा के अनुकूल विशेष प्रशिक्षण देने के लिए वापस लाया जाए, और यह प्रशिक्षण पूर्ण हो जाने पर उसको स्थायी रूप से कोई कार्यक्षेत्र सौंपा जाए। साथ ही अब हम पूरे देश में संगठनात्मक ढांचा भी खड़ा कर रहे हैं।
संगठनात्मक ढांचे का स्वरूप
प्रश्नः- यह संगठनात्मक ढांचा क्या होगा? उसकी कार्य-प्रणाली क्या रहेगी?
उत्तरः- अभी तो हम प्रत्येक प्रान्तीय राजघानी में संगठन की इकाई स्थापित कर रहे हैं। कार्य-प्रणाली के अन्तर्गत हम उस नगर में या उसके आस-पास कोई सेवा क्षेत्र चुनकर उसमें अपने कार्यकर्ताओं को बनाएंगे। साथ ही उनके बौद्धिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए योगासन कक्षाएं एवं चर्चा-गोष्ठियां आदि आयोजित करेंगे।