स्वामी विवेकानन्द और अस्पृश्यता

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सदियों से अस्पृश्यता और तिरस्कार भोगने वाले समुदायों में दो प्रकार के लोग हैं। कुछ में दास भाव आ गया है और कुछ में विद्रोही और आक्रामक तेवर दिखाई देता है। स्वामीजी दास-भाव से मुक्त होकर उनमें स्वाभीमान और आत्मविश्वास जगाने की जरुरत समझते हैं। दूसरी ओर वह आक्रोश को भी व्यर्थ मानते हैं । स्वामीजी कहतें हैं - "ब्राह्मणेत्तर जातियों से मैं कहता हूँ, उतावले मत बनो, ब्राह्मणों से लड़ने का प्रत्येक अवसर मत खोजते रहो।... तुमको आध्यात्मिकता और संस्कृत शिक्षा छोड़ने को किसने कहा ? तुम उदासीन क्यों बने रहे ? तुम अब क्यों कुड़कुड़ते हो ? समाचारपत्रों में विवाद और झगड़ा करने में अपनी शक्तियों को व्यर्थ नष्ट करने के बदले अपने को विकसित करने में समय और साधन का, उपयोग करो, एेसी स्वमीजी की समझ है। स्वामीजी के "गुड़कुड़ाने" शब्द पर ध्यान दें। कुड़कुड़ाने में कोई समाधान नहीं। प्रतिक्रिया पुन प्रतिक्रिया को जन्म देगी। धृणा का उत्तर धृणा नहीं है। एक ही मंत्र है - स्वयं ऊपर उठो और दूसरों को ऊपर उठाने में सहायता करो। इस समस्या का समाधान राजनीति में नहीं, संस्कृति में है। एक संघर्षविहीन समाज ही भारत द्वारा विश्व को दिया जा सकने वाला महानतम व अमूल्य उपहार हो सकता है। यह एक अद्वितिय एवं कल्पनातीत सेवा-कार्य होगा। -मा. एकनाथजी रानडे

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